मेरे पिछले लेख पर संजय बेंगानीजी की संक्षिप्त टिप्पणी ने कई चिट्ठाकारों को क्षुब्ध किया। प्रियंकरजी ने प्रति-टिप्पणी करके संजयजी को हक़ीक़त बताने की कोशिश की। कुछ अन्य चिट्ठाकारों ने मुझे मेल करके और जीमेल गपशप पर बातचीत करते हुए संजयजी की सोच पर अपनी व्यथा जताई। मैं यहाँ प्रो. विष्णु प्रकाश श्रीवास्तव का एक लेख प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, जो इस विषय की वास्तविकता को अत्यंत गहनता से स्पष्ट करता है। आशा है, इससे संजयजी एवं उनके जैसी सोच वाले अन्य व्यक्तियों की मानसिकता में कुछ परिवर्तन आने के आसार बनेंगे।
संदर्भ: सृजन शिल्पी
लिंक: http://srijanshilpi.com/?p=71
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